चैत महीने के शुक्ल पक्ष में
नौंवी तिथि की थी वो दोपहर
न सर्दी अधिक,न गर्मी ज़्यादा
वातावरण था स्निग्ध मनोहर।
तीनों लोक कर रहा था प्रतीक्षा
कि आज अजन्मा जन्मेंगे जग में
धरती पे धर्मी कर रहे थे प्रतीक्षा
देवता करे प्रतीक्षा बैठे स्वर्ग में।
दिव्य स्तुति, गान, वादन, नर्तन
सारी सृष्टि समायी थी आनंद में
वेदवाणी से लग रहे पवन के सूर
पक्षी कलरव कर रहे थे छंद में।
तब प्रकट हुए दशरथ भवन में
अजन्मा, अविनाशी प्रभु राम
चतुर्भुज रूप, आयुध से युक्त
आत्माराम प्रभु वो आत्मकाम।
देख प्रभु का ऐश्वर्य और वैभव
माँ ने करी एक विनती प्रभु से
त्याग दें अपना ये चतुर्भुज रूप
बन जाओ शिशु आप विभु से।
देखनी है आपकी शिशुलीला
मुझे तो माँ-सा लाड़ लड़ाना है
पुत्र की भाँति लगाकर हृदय से
मुझे तो आप पर प्रेम लुटाना है।
सुनकर माँ की निश्चल वाणी
बन गए बालक साकेतबिहारी
शिशुलीला की कर शुरुआत
लगे हैं रोने अब सुदर्शनधारी।
भक्त के प्रेम में पड़कर ही तो
प्रभु इस धरा पर आते रहते हैं
पिता पुत्र भाई बंधु सब लीला
भक्त के प्रेम में बंधकर करते हैं।
वरना दुष्टों के संहार के लिए तो
उनका एक संकल्प ही पर्याप्त है
प्रेम में पड़कर ही तो बने बालक
प्रभु जो कण-कण में व्याप्त है।
जब कौशल्या-सी तड़प ममता की
दशरथ-सा अनन्य प्रेम हो जाता है
तब प्रेमी भक्त अपने हृदय मंदिर में
राम जन्म का अनुपम सुख पाता है।
हर हृदय में जन्मे राम लला और
जीवन भर हम जन्मोत्सव मनाए
राघव से ही करें हम विनती कि
उनकी कृपा के लायक बन पाए।
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