"विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं
शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥"
भवसागर के भय से तारे
शरणागत को दे अभयदान.
जिसके ऊपर रख दे आप
निश्चित होता उसका कल्याण.
ये कमल सदृश हस्त आपके
चलती हैं लक्ष्मी जिन्हें थामके.
ये क्लेशहारी वरद हस्त अपने
हम पे भी डालों दीन जान के.
सबके कष्टों को हरते हो सदा
फिर क्यों छुपे हो हमारी बारी.
कामनाओं को पूरी करनेवाले
पूरी करो जरा कामना हमारी.
न भवभय से मुक्ति हम चाहें
न ही कोई अभयता का दान.
बस दिखा दो जरा अपनी छवि
जी उठेंगे हमारे मृत पड़े प्राण.
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