"चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः
कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥"
गैया और ग्वालों के संग
वन में जब आप जाते हैं.
हमारे मन भी हो लेते साथ
हमारे पास कहाँ रह पाते हैं.
गाँव से दूर वन्यभूमि पे जब
चलते हैं आपके चरण सुकुमार.
चरणों में चोट कहीं लग न जाए
ह्रदय विदीर्ण कर जाते ये विचार.
कमल से भी कोमल पाँव प्रभु के
कैसे धरती को सह पाते होंगे.
कभी अनाज के नोकदार छिलके
तो कभी घास-फूस चुभ जाते होंगे.
हमारे ह्रदय में रहते हैं ये चरण
इसमें अगर कहीं काँटा चुभ जाए.
आप ही बताये हे सर्वज्ञ स्वामी
उस चुभन को हम कैसे सह पायें.
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