गोप्य ऊचुः ।
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः
श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥
तेरे कारण महिमा ब्रज की
तूने बढ़ाया है इसका मान
जन्म से तेरे हो गई ये पावन.
वैकुंठ से भी अब है ये महान.
छोड़ के सारे धन और वैभव
लक्ष्मी सेवा करती हैं यहाँ
हम क्या छोड़े तू ही बता
तेरे सिवा कुछ है ही कहाँ
प्राण हमारे अब तेरे चरण में
हम तो हैं सिर्फ तेरी शरण में
वन-वन में हम ढूँढ के हारी पर
छवि न आयी अब तक नयन में
गोपियों की ये करुण पुकार
सुन लो ये व्रज राजकुमार.
दया कर हम पे दे दो दर्शन
दर्शन बिना जीवन है भार.
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें