वैसे तो
मंजिल भी है,
रास्ता भी है.
पर दोनों ही है गुमराह .
कभी इसकी
तो कभी उसकी
निश्चित ही नही है
इस मन की चाह.
अनदेखा रास्ता
अनजानी मंजिल
फिर कैसे मिले
जीवन को पनाह.
ऐसा हो कि रास्ता भी तू
ऐसा हो कि मंजिल भी तू.
ऐसा हो कि उंगली पकड़ ले तू
चल पडूँ मैं तू ले जाये जिस राह.
बुधवार, 12 अक्तूबर 2011
ऐसा हो कि उंगली पकड़ ले तू,चल पडूँ मैं तू ले जाये जिस राह.
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2 comments:
समर्पण में आनन्द है।
बहुत अच्छी रचना...
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