कोई खुद ही जा रहा है
किसी को ले जाया जा रहा है
हमारे चाहने न चाहने से परे
हर पल जीवन कम रहा है.
मौत की तरफ नही बढ़ाते
पर हर कदम उधर बढ़ ही जाते हैं.
भूले-भटके भी कोई वहाँ से
कभी भी इधर लौट कर नही आते हैं
दर्द इसकी दीवारे डिगा देता है
मौत इसकी जड़े हिला देती है
कितनी खोखली है हमारी जिंदगी
कितनी बेबस है इसकी दास्ताँ .
बड़े नाम भी गुमनामी में खो रहे
जब शैतान भी ढ़ेर यहाँ हो रहे
फिर हम जैसों की बिसात ही क्या
तब भी हम अपना आशियाना ढूँढ रहे
क्यों होता है हमारी मर्जी के खिलाफ
क्या कोई और हमें नचा रहा.
क्या है कोई हमारी मर्जी से भी ऊपर
जो हमारा टेढा सिर झुका रहा
कब करेंगे जानने की कोशिश
जब ये जिंदगी गुजर जायेगी?
कब ?आखिर कब?
जब मानव देह लौट कर नही आयेगी?
1 comments:
इस विडंबना को ही इंसान समझ नही पाता है और अंत मे पछताता है।
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