मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

देख ली जिसने सांवली सूरतिया
























तेरी मुरलिया तेरी बाँसुरिया
कान्हा तेरी ये मनहर मुस्कान
कैसे संभाले खुद को बावरिया
उसके तो निकल रहे हैं प्राण

तेरी ये मुरली की धुन
बड़ी बेदर्द है वो मनबसिया
करे ठिठोली ये तो हमसे
तेरी तरह ही है ये भी रसिया

कान पड़े तो सुध बुध बिसराई
न सुनूँ फ़िर तड़पूं घड़ी - घड़ी
सुनूँ तो हर्ष से ,न सुनूं तो
विरह में गिरे आँखों से लड़ी

ऐसी मनमोहनी छवी तुम्हारी
जिससे कहाँ कोई बच पाए
देख ली जिसने सांवली सूरतिया
फिर कहाँ कोई सूरत उसको भाए

1 comments:

Prabhat Sharma ने कहा…

सुन्दर रचना ! कान्हा की तरह आपकी ये रचना भी अत्यंत मनमोहक है ,

"तेरी ये मुरली की धुन
बड़ी बेदर्द है वो मनबसिया
करे ठिठोली ये तो हमसे
तेरी तरह ही है ये भी रसिया
"
इन पंक्तियों ने तो कान्हा की धुंधली हुई छवि को दिल में उज्जागर कर दिया है !
कान्हा की सांवली सूरत को देख तो सुध बुध खो जाती है !..........

और और लिखिए मनमोहन कान्हा के बारें में ,इसी तरह मनमोहन रचनाएँ लिखती रहिये !

शुभकामनाएं
राधे राधे
क्षितिज