गुरुवार, 19 मई 2011

करुणा के कंकड मार के तोड़ दे,मान की मेरी मटकी तू कान्हा

करुणा के कंकड मार के तोड़ दे

मान की मेरी मटकी तू कान्हा

मटके लिए मै हूँ कब से खड़ी

आ जा इधर फिर मधुवन जाना


मटकी मेरी बड़ी भारी हुई है

जाने कब से तूने नही तोड़ा

संभाले से मुझसे संभले नही

तोड़ दे न करूँ मै तोसे निहोरा .


ऐसे ही ढोउ मै काया की गठरी

तिसपे बढ़ गई मान की मटकी

अपने-पराये और राग-द्वेष से

जाने कब भर गई मेरी मटकी.


मुझसे अब न ये संभाली जाए

और न ही मुझसे उतारी जाए

कब ही से रास्ता देखूं मै कि

कान्हा मेरा जब इधर से आए.


अब आ ही गया है तो इन्हें तोड़ दे

ताकि ये राग द्वेष मुझे छोड़े तो सही.

बुराइयाँ बटोरने की आदत है मुझमे

पर इन्हें छोड़ने की है ताकत नही.


सलीका नही,क्या भरूं मटकी में

उसपे भी मानूं नही तेरा कहना

पर कान्हा तू है बड़ा-ही करुण

करुणा की एक कंकड मार देना.

7 comments:

vandana gupta ने कहा…

वाह्…………क्या कहूँ आज तो गज़ब कर दिया………सच जिस दिन वो इस मटकी को तोड देगा सारा मैल बह जायेगा और उससे मिलन हो जायेगा…………आज की आपकी रचना बहुत पसन्द आई।

DivineTalks ने कहा…

आप की टिप्प्णी हमेशा ही मेरा उत्साहवर्धन करती है.बहुत-बहुत शुक्रिया.

बेनामी ने कहा…

hare krishna pankhudi ji - bahut hi sundar rachana ....

Richa P Madhwani ने कहा…

wonderful blog

Maheshwari kaneri ने कहा…

सुन्दर भाव पूर्ण रचना...

Chaitanyaa Sharma ने कहा…

कान्हा को समर्पित प्यारा ब्लॉग..... बहुत सुंदर

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पहली बार आपके ब्लॉग पर आया, पढ़कर मन प्रसन्न हो गया।