हे मनमोहन कहाँ छिपे
हे मधुसूदन कहाँ छिपे.
रीत-रस्मों को तोड़ हम आयी
लोक-लाज भी भूल का आयी.
बिन तेरे अब जाए कहाँ हम
तेरे लिए ही लिए जन्म हम
चंदा की चांदनी ने तुझे चुराया
या वृक्षों ने है तुझे छुपाया
ये तमाल का वृक्ष कही तुम ही तो नही
हे सखी! उन लताओं से तो पूछो सही.
प्रेम की पीड़ा बढ़ा कर
विरह की अग्नि जलाकर
एकबार दरस दिखाकर
हे सखे! छुपे हो कहाँ जाकर
जीवन हमारा तेरे लिए है
तेरे बिना क्या पास बचेगा
तेरे सिवा न कोई रिश्ता हमारा
फिर भी तू यूं हमसे रूठेगा
हे मुरलीधर आ भी जाओ
हे गिरिधर अब न सताओ
सब कुछ तुझको सौंप चुकी हूँ
अब क्या सौपूं तुम ही बताओ .
हे मुरलीधर आ भी जाओ
1 comments:
बहुत बढ़िया रचना प्रस्तुति...आभार
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