कब से भटक रहे है हम
पग -पग पे ठोकरे खाते
कभी यहाँ तो कभी वहाँ
कहाँ- कहाँ हम पटके जाते
चैन मिले न मन को कही
शांति को हम तरस जाते
आत्मा बेचारी तड़पती रहती
इसकी प्यास कहाँ बुझा पाते
प्यासी आकांक्षा के साथ हम
बार - बार धरती पे ही आते
कभी ये शरीर कभी वो शरीर
शरीर के साथ दुःख में समाते
आखिर कब तक भटकेंगे हम यूं ही
अपने घर हम क्यों न लौट जाते
इससे पहले कि इस जीवन की भी शाम ढले
चलो हम अब अपने परमपिता के घर लौट चले
मंगलवार, 9 जून 2009
अब घर लौट चले
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1 comments:
नन्ही कवियत्री जी !
काफी समय पहले एक फिल्म आई थी ,उसका शीषर्क था "आ " - "अब घर लौट चले", उसमें विदेश गए नोजवानों को
देश वापस आने के लिए प्रेरित किया गया था , लेकिन आपकी रचना तो उस-से कंही ऊपर है ,क्योंकि आपने तो इस आत्मा को उसके असली और मूल देश ' प्रभु के देश ' जाने के लिए प्रेरित किया है !
बहुत ही सुन्दर रचना और अत्यंत ही सुन्दर प्रयास !
हरेकृष्ण
शुभकामनाएं
क्षितिज
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