देखूं तुझे तो नज़र न हटे
सोचूँ तो दिखे दृश्य बहुतेरे
कुंज गली,यमुना का तट
सब लहराए मन में मेरे
कभी गैया चराते तू नज़र आये
कभी वन में बैठे बंसी बजाये
माखन चुराते देख न ले कोई
चिंता में दिल मेरा घबराए
न चाहे मन तुझे पकड़ ग्वालबाला
यशोदा मैया से तेरी शिकायत लगाए
जानू तू है सर्व शक्तिशाली फिर भी
कालिया के साथ देख मै डर जाऊँ
जितनी गोपियाँ उतना ही तू कैसे
सोच - सोच मै खुद में उलझ जाऊँ
नन्हा-सा कन्हैया कभी मिट्टी खाए
कभी दिखे वो गोवर्धन पर्वत उठाये
कभी रास रचैया को गोपियाँ नचाये
तो कभी गोपाल वन में गैया चराए
एक नज़र पड़े तुझ पे तो कल्पना के
सागर में मै तो डूबती ही चली जाऊँ
मूरत में सूरत है इतनी लुभावनी तो
हकीकत में तुझे मै देख भी न पाऊं
सोमवार, 8 जून 2009
देखूं तुझे तो नज़र न हटे
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1 comments:
अत्यंत ही सुन्दर व्याख्या है "नन्द लाला की".
मन झूम उठा ये कविता पढ़ के ,सारी की सारी नटखट माखन चोर - कनेहेया की लीलाएं सामने चलती हुई प्रतीत
हुईं है .
"हाथी घोड़ा पालकी
जय कनेहेया लाल की "
शुभकामनाएं
हरेकृष्ण
क्षितिज
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