शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

चुराने लगा माखन जब परब्रह्म गोकुल में आकर,फिर क्यों मै बैठूं हिमालय पे जाकर

चुराने लगा माखन जब
परब्रह्म गोकुल में आकर
फिर क्यों मै बैठूं
हिमालय पे जाकर

व्रज की गलियों में
नाच रहा परमेश्वर
ध्यान लगाकर पाऊं
फिर कौन-सा ईश्वर?

पीले पीतांबर में दमकता
नीलमणि-सा वो चेहरा
छोड़ इस दिव्य छवी को
लूं सिर्फ प्रकाश का आसरा?

जब दिख गयी प्रकाश के
पीछे की छवी
तो फिर कैसे प्रकाश
में समा जाऊं.

जब हटा रहे खुद
वे सारे परदे
फिर कैसे किसी
परदे से ढक जाऊं?

व्रज की रज
यमुना का नीर
गोवर्धन की छांव
कण-कण में ही तो बसा है वो
फिर क्यों इधर-उधर जाऊं?
क्यूं न वही बस जाऊं और उसे बुलाऊं ?

3 comments:

Rakesh Kumar ने कहा…

वाह! भक्तिपूर्ण सुन्दर प्रस्तुति के लिए
हार्दिक आभार आपका.

सुबह सुबह भक्ति रस से सराबोर कर दिया
है आपने.

मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

घर में कान्हा, बाहर जाऊँ क्यों..

निर्झर'नीर ने कहा…

व्रज की रज
यमुना का नीर
गोवर्धन की छांव
कण-कण में ही तो बसा है वो
फिर क्यों इधर-उधर जाऊं?
क्यूं न वही बस जाऊं और उसे बुलाऊं ?


सुन्दर प्रस्तुति