बुधवार, 7 जुलाई 2010

लल्ला मेरा

पाँच साल का लल्ला मेरा
जा रहा है मधुवन में
गैया नही, बछड़े है साथ
बछड़े ही चरायेगा न बचपन में

सखाओं से घिरा है वो
दाऊ भी हैं उसके संग
ऐसे सज रहा है वो जैसे
तारों में सजे चाँद का रंग

बछड़े चर रहे हैं और
ये खेल खेलते हैं
कभी लल्ला को पकडते हैं
तो कभी गले मिलते हैं

कभी फूल तोडते हैं ये
तो कभी फूलों की माला बनाते हैं
कभी पत्ते से सजते हैं
कभी लल्ला को माला पहनाते हैं

खेलते-खेलते थक गए
उन्हें अब भूख सता रही है
दोपहर का समय है
उन्हें अब कलेवा बुला रही है

पेड़ के नीचे बैठ गए सारे
लेकर अपनी-अपनी पोटलियाँ
कोई हाथ पे ही खाना परोस रहा
तो कोई ला रहा है पत्तियां

लल्ला को मैया ने दिया है
दही-भात का कटोरा
मिल बाँट के सबने खाया
किसी को नही किसी ने छोड़ा

ऐसे ही अटखेलियाँ करते
लल्ला लौट रहा है घर को
वही श्यामल-सी रंगत,मोहिनी सूरत
और सजी है वंशी उसके अधर को.

5 comments:

Jandunia ने कहा…

खूबसूरत पोस्ट

अरुणेश मिश्र ने कहा…

भजन बहुत अच्छा है ।

Prabhat Sharma ने कहा…

लल्ला जी जितने अच्छे हैं उतनी अच्छी आपकी रचना है !
अत्यंत ही हार्दिक रचना है !
शुभ कामनाएं !!

bilaspur property market ने कहा…

जय जय श्री राधे

Rahul ने कहा…

अति सुन्दर कविता. बहुत ही अच्छी रचना...